अपनी पिछली पोस्ट "शौर्य" में मैने परदे पर उभरते नवोदित कलाकार दीपक डेब्रॉयल की चर्चा की थी. आइए इस कलाकार के अभिनय के सफ़र के पन्ने पलटें.
दीपक पौड़ी गढ़वाल के बाशिंदे हैं. इन्होंने अपने अभिनय के कैरियर की शुरुआत 1994 में प्रमुख नाट्य निर्देशक अरविंद गौर के साथ की थी. श्री गौर के निर्देशन में दीपक जी के प्रमुख नाटक रहे तुगलक़, अंधा युग, रक्त कल्याण, कोर्ट मार्शल... आदि. छह वर्षो'अस्मिता ' से जुड़े रहने के बाद ,दीपक को एक वर्ष चर्चित निर्देशक पंडित एन.के.शर्मा की छत्रछाया में कई महत्वपूर्ण नाटकों का अंग बनाने का अवसर मिला जैसे- 'आओ साथी सपने देखें', 'हमार बाबूजी की छतरी' और' अक्सर मैने सोचा है.'
किंतु फिल्मों में दीपक की पहचान फिल्म 'ओंकारा' में सैफ अली को खलनायक बनाने वाले रज्जो तिवारी के रूप में पहली बार हुई. इस पात्र को पर्दे पर खूबसूरती से निभाने के लिए फ़िल्मफ़ेयर का विशेष अभिनय प्रदर्शन अवार्ड मिला.
हाँलाकि दीपक की सबसे पहली फिल्म विशाल भारद्वाज की 'मक़बूल' है,जिसमें उन्होंने कोई संवाद बोला ही नहीं था. किस्सा यूँ है कि जब दीपक विशाल जी के पास काम माँगने पहुँचे तब तक सभी पात्रों का चुनाव किया जा चुका था. सिर्फ़ एक पात्र ऐसा था जिसके लिए चुना अभिनेता सेट पर नहीं पहुँचा था. यही पार्ट विशाल भारद्वाज ने दीपक को दिया. सात वर्षों के रंगमंच के अनुभव के बावज़ूद दीपक ने इस संवाद विहीन चरित्र को निभाने का फ़ैसला किया. विशाल जी जैसे काबिल निर्देशक के साथ काम करना उन्होंने अपना एक सकारात्मक कदम माना. जब मक़बूल फिल्म रिलीज़ हुई तो दीपक ने अपने पिता को फ़ोन कर इस नई सफलता की सूचना अपने पिता को दी .उनके पिता अपने दफ़्तर के सभी सहकर्मियों सहित फिल्म देखने पहुँचे. कहना न होगा कि अपने अनुभवी पुत्र का संवाद विहीन अभिनय उन्हें अपने सहकर्मियों के सम्मुख शर्मिंदा के रसातल में डुबो गया. उनके मित्रों ने उनका ढाढ़स भी यह कहते हुए बँधाया कि 'फिल्म में दिखना भी बड़ी बात है'. क्षुब्ध पिता ने फ़ोन पर अपने पुत्र को ज़ोरदार डॉंट लगाई. कहा -'ऐसे बात कर रहा था जैसे की खुद ही मक़बूल हो'.दूध का जला छाछ भी फूँक-फूँक कर पीता है. इसीलिए जब 'ओंकारा' रिलीज़ हुई तो दीपक के पिता अकेले ही फिल्म देखने गए. जब दीपक के रोल 'तिवारी' की चर्चा आम होने लगी तब वे पूरे दफ़्तर के लोगों को फिल्म दिखाने ले गये.
दीपक के अभिनय कौशल को ' स्टूडियो 18 'की युद्ध पर बनी फिल्म '1971' के लिए भी सराहा गया. उन्होंने अनुराग कश्यप की चर्चित फिल्म 'गुलाल' ,राकेश ओमप्रकाश मेहरा की 'दिल्ली 6' ओए विशाल भारद्वाज की 'द ब्लू अम्ब्रेला' में भी काम किया है. उनकी कुछ आने वाली फिल्मों हैं- कुंदन शाह की 'मुंबई कटिंग' और बेला नेगी की 'दाँये या बाएँ'. बस मज़ा लेते रहिए दीपक के अभिनय के जौहर का.
अब आप 'ओंकारा' के इस मशहूर गीत में सैफ के साथ थिरकते एवम् सिगरेट फूँकते दीपक को पहचानें.
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5 comments:
दीपक डोब्रियाल के लिए मैं हमेशा कहता हूँ कि यदि भारतीय सिनेमा ने इस कलाकार को नहीं पहचाना तो हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के लिए ये बहुत बड़ी हानि होगी.. फिल्म १३ बी में भी दीपक का काम बहुत बढ़िया रहा.. और गुलाल में तो उनके काम की जितनी तारीफ़ की जाये कम है..
deepak drobiyal ji ke baare me jaankaari achhi lagi aap dono ke liye shubhkaamnaayen
Are wah Deepak hamare ilake ke hain aur mujhe pata bhi nahi
thank you
Gulaal dekhne ke baad apne us ek scene ki badaulat unka kirdaar mujh par itna asar kar gaya ki maine net par unke naam ki talaash shuru ki.Aur net par turant har jagah usi scene ke charche mile
Pan ki dukaan ke us scene mein deepak ko bina munh khole aankhon aur chehre ke haav bhaav dekhane the. aur ek dum qamal kar gaya ye shakhsh.
Aapki is post se unke natya avam film jagat ke pichle jeevan ki bhi jaankaari mili. Bahut bahut shukriya.
After seeing Deepak playing small but powerful roles in films like Omkara, Gulal, Maqbool etc, it would be interesting to see him playing lead roles.In 'Mumbai Cuttings", which is a collection of 10 short films(remember Dus Kahaniyan?)depicting different hues of life in Mumbai, Deepak plays lead role in Kundan Shah's(of 'jaane bhi do yaro'fame)Hero, which is abt daily train commuters in Mumbai. With Directors like Jahnu Barua,Sudhir Mishra, Rituparno Ghosh, Anurag Kashyap etc Mumbai Cuttings should be interesting.
Deepak perhaps played lead role in MIdnight Lost and Found(2007)too.
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